हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
कुछ समझ में नहीं आता कि सबा पा गई क्या
ये वही मेरा नगर है तो मिरे यार यहाँ
एक बस्ती मिरे प्यारों की थी काम आ गई क्या
मेरी सरहद में ग़नीमों का गुज़र कैसे हुआ
थी सरों की वो जो दीवार खड़ी ढा गई क्या
यूँ तो कहने को बस इक मौज थी पानी की मगर
देखना ये हैं कि पल-भर में ग़ज़ब ढा गई क्या
बाद मुद्दत के मिला है तो मिरे यार बता
तेरी आँखों में जो इक बर्क़ थी कजला गई क्या
अब किसी बात में भी जी नहीं लगता मेरा
दिल में आ बैठी थी जो ख़्वाहिश-ए-दुनिया गई क्या
तज़्किरे जिस के किताबों में पढ़ा करते थे
देख भाई वो क़यामत की घड़ी आ गई क्या
तेरे चेहरे पे 'उमर' आज ये रौनक़ कैसी
फिर तबीअत कोई मौज़ू-ए-सुख़न पा गई क्या
ग़ज़ल
हो के उस कूचे से आई तो सितम ढा गई क्या
उमर अंसारी