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हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला | शाही शायरी
ho ke sar-ta-ba-qadam aalam-e-asrar chala

ग़ज़ल

हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला

फ़िराक़ गोरखपुरी

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हो के सर-ता-ब-क़दम आलम-ए-असरार चला
जो चला मय-कदा-ए-इश्क़ से सरशार चला

हमरह-ए-हुस्न इक अंबोह-ए-ख़रीदार चला
साथ इस जिंस के बाज़ार का बाज़ार चला

न हुआ राह-ए-मोहब्बत में कोई ओहदा-बरा
जो सुबुक-दोश हुआ वो भी गिराँ-बार चला

उन का जो हाल कि पहले था वही हाल रहा
तेरे ग़म-कुश्तों से इक़रार न इंकार चला

आसमाँ हो कि क़यामत हो कि हो तीर-ए-क़ज़ा
चाल उस फ़ित्ना-ए-दौराँ से हर इक बार चला

ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा उसी का है जहाँ में तुझ को
देख कर भी जो लिए हसरत-ए-दीदार चला

हुस्न-ए-काफ़िर से किसी की न गई पेश 'फ़िराक़'
शिकवा यारों का न शुकराना-ए-अग़्यार चला