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हो के मजबूर आह करता हूँ | शाही शायरी
ho ke majbur aah karta hun

ग़ज़ल

हो के मजबूर आह करता हूँ

बेख़ुद देहलवी

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हो के मजबूर आह करता हूँ
थाम कर दिल गुनाह करता हूँ

अब्र-ए-रहमत उमँडता आता है
जब ख़याल-ए-गुनाह करता हूँ

मेरे किस काम की है ये इक्सीर
ख़ाक-ए-दिल वक़्फ़-ए-राह करता हूँ

दिल से ख़ौफ़-ए-जज़ा नहीं मिटता
डरते डरते गुनाह करता हूँ

दिल में होते हो तुम तो अपने पर
ग़ैर के इश्तिबाह करता हूँ

तू न देखे ये देखना मेरा
तुझ से छुप कर गुनाह करता हूँ

बंदा-ए-इश्क़ है तिरा 'बेख़ुद'
तुझ को यारब गवाह करता हूँ