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हो के मह वो तो किसी और का हाला निकला | शाही शायरी
ho ke mah wo to kisi aur ka haala nikla

ग़ज़ल

हो के मह वो तो किसी और का हाला निकला

नज़ीर अकबराबादी

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हो के मह वो तो किसी और का हाला निकला
हम ने समझा था जिसे गुल सो वो लाला निकला

लेने ख़ैरात तिरे चेहरा-ए-पुर-नूर से रात
बद्र चाँदी का लिए हाथ में प्याला निकला

उस के चेहरे पे नहीं काकुल-ए-मुश्कीं की नुमूद
ये पिटारे के तईं तोड़ के काला निकला

था इरादा तिरी फ़रियाद करें हाकिम से
वो भी ऐ शोख़ तेरा चाहने वाला निकला

रात कोठे पे चढ़ा वो तो कहूँ क्या यारो
मंज़र-ए-बाम से उस के वो उजाला निकला

बर्क़ जूँ चमके है या छूटे है जैसे महताब
वो उजाला तो कुछ इस से भी निराला निकला

जी की सब धूम थी जब तन से वो निकला तो 'नज़ीर'
फिर न सीने से उठी आह न नाला निकला