हो के ख़ुश नाज़ हम ऐसों के उठाने वाला
कोई बाक़ी न रहा अगले ज़माने वाला
ख़्वाब तक में भी नज़र आता नहीं ऐ चश्म
मेरे रो देने पे अश्कों का बहाने वाला
आज कुछ शाम से चुप है दिल-ए-महज़ूँ क्या इल्म
क्यूँ ख़फ़ा है मिरा रातों का जगाने वाला
बे-ख़ुदी क्यूँ न हो तारी कि गया सीने से
अश्क-ए-ख़ूँ आठ-पहर मुझ को रुलाने वाला
कब समझता है कि जीना भी है आख़िर कोई शय
अपनी हस्ती तिरी उल्फ़त में मिटाने वाला
मोहतसिब ख़ुश है बहुत तोड़ के ख़ुम-हा-ए-शराब
ग़म नहीं सर पे सलामत है पिलाने वाला
हो गए देखने वाले भी जहाँ से नायाब
अब दिखाए किसे हैराँ है दिखाने वाला
तेरे बीमार-ए-मोहब्बत की ये हालत पहुँची
कि हटाया गया तकिया भी सिरहाने वाला
सामना उस बुत-ए-काफ़िर का है देखें क्या हो
ख़ुद है शश्दर मिरा ईमान बचाने वाला
'शाद' इक भीड़ लगी रहती थी जिस घर में वहाँ
आने वाला है न अब कोई न जाने वाला
ग़ज़ल
हो के ख़ुश नाज़ हम ऐसों के उठाने वाला
शाद अज़ीमाबादी