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हो के ख़ुश नाज़ हम ऐसों के उठाने वाला | शाही शायरी
ho ke KHush naz hum aison ke uThane wala

ग़ज़ल

हो के ख़ुश नाज़ हम ऐसों के उठाने वाला

शाद अज़ीमाबादी

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हो के ख़ुश नाज़ हम ऐसों के उठाने वाला
कोई बाक़ी न रहा अगले ज़माने वाला

ख़्वाब तक में भी नज़र आता नहीं ऐ चश्म
मेरे रो देने पे अश्कों का बहाने वाला

आज कुछ शाम से चुप है दिल-ए-महज़ूँ क्या इल्म
क्यूँ ख़फ़ा है मिरा रातों का जगाने वाला

बे-ख़ुदी क्यूँ न हो तारी कि गया सीने से
अश्क-ए-ख़ूँ आठ-पहर मुझ को रुलाने वाला

कब समझता है कि जीना भी है आख़िर कोई शय
अपनी हस्ती तिरी उल्फ़त में मिटाने वाला

मोहतसिब ख़ुश है बहुत तोड़ के ख़ुम-हा-ए-शराब
ग़म नहीं सर पे सलामत है पिलाने वाला

हो गए देखने वाले भी जहाँ से नायाब
अब दिखाए किसे हैराँ है दिखाने वाला

तेरे बीमार-ए-मोहब्बत की ये हालत पहुँची
कि हटाया गया तकिया भी सिरहाने वाला

सामना उस बुत-ए-काफ़िर का है देखें क्या हो
ख़ुद है शश्दर मिरा ईमान बचाने वाला

'शाद' इक भीड़ लगी रहती थी जिस घर में वहाँ
आने वाला है न अब कोई न जाने वाला