हो के बेचैन मैं भागा किया आहू की तरह
बस गया था मिरे अंदर कोई ख़ुशबू की तरह
कोई साया न मिला साया-ए-गेसू की तरह
सारे जीवन की थकन उतरी है जादू की तरह
मेरी आवाज़ तुझे छू ले बस इतनी मोहलत
तेरे कूचे से गुज़र जाऊँगा साधू की तरह
वो जो आ जाए तो क्या होश का आलम होगा
जिस के आने की ख़बर फैली है ख़ुशबू की तरह
ज़िंदगी प्यार वफ़ा सब का मुक़द्दर यकसाँ
मुस्कुराहट की तरह है कभी आँसू की तरह
हर तरफ़ आग लगा आए हो फिर पूछते हो
क्यूँ चली बाद-ए-सबा अब के बरस लू की तरह
शाएरी तेरी इबादत के सिवा कुछ भी नहीं
कर रहा हूँ मैं तपस्या किसी साधू की तरह
हर अलम साथ रहा गर्द-ए-सफ़र की मानिंद
हर ख़ुशी राह में मुझ को मिली जुगनू की तरह
ज़िंदगी ठोकरें खाती है बिछड़ कर तुझ से
तेरी पाज़ेब के टूटे हुए घुंघरू की तरह
कोई इष्वर कहे उस को कि ख़ुदा कोई कहे
वो मुसलमाँ की तरह है न वो हिन्दू की तरह
अपनी हर साँस पे एहसाँ लिए हमदर्दों का
ज़िंदगी जीता हूँ इस अहद में उर्दू की तरह
अब ये एहसास की ख़ूबी हो कि ख़ामी हो 'नूर'
उस की नफ़रत का धुआँ भी लगा ख़ुशबू की तरह
ग़ज़ल
हो के बेचैन मैं भागा किया आहू की तरह
कृष्ण बिहारी नूर