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हो के आशिक़ जान मरने से चुराए किस लिए | शाही शायरी
ho ke aashiq jaan marne se churae kis liye

ग़ज़ल

हो के आशिक़ जान मरने से चुराए किस लिए

दत्तात्रिया कैफ़ी

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हो के आशिक़ जान मरने से चुराए किस लिए
मर्द-ए-मैदाँ जो न हो मैदाँ में आए किस लिए

जो दिल-ओ-ईमाँ न दीं नज़्र उन बुतों को देख कर
या-ख़ुदा वो लोग इस दुनिया में आए किस लिए

है ये अंदाज़-ए-हया और तर्ज़-ए-तम्कीं क्यूँ नहीं
जो न होवे चोर वो आँखें चुराए किस लिए

देखिए किस जन्नती के आज खुलते हैं नसीब
तेग़ क्यूँ तोले हैं ये चिल्ले चढ़ाए किस लिए

उँगलियाँ अपने पर उठवानी न हों मंज़ूर तो
वो किसी को आम महफ़िल से उठाए किस लिए

उस के पेच-ओ-ख़म से जीते-जी निकलना है मुहाल
हज़रत-ए-'कैफ़ी' तुम इस कूचे में आए किस लिए