हो ईद या मोहर्रम हम ग़म किया करेंगे
दो रोज़ा दहर-ए-दूँ में मातम किया करेंगे
मज़मून दरहमी का गेसू के बाँधेंगे हम
हर दम मिज़ाज अपना बरहम किया करेंगे
उस हर्फ़-ए-ना-शुनू की फ़ुर्क़त में चुपके बैठे
हम अपने दिल से बातें हर दम किया करेंगे
कानों तक उस के पहुँचे मानिंद-ए-ज़ुल्फ़ जब हम
सरगोशियाँ सरासर बाहम किया करेंगे
वो ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ से अपने काफ़ूर-ओ-मुश्क ले कर
तय्यार ज़ख़्म-ए-दिल का मरहम किया करेंगे
गो तल्ख़ वो कहेंगे लब-हा-ए-शक्करीं से
हर दम दुआ मगर हम हम-दम किया करेंगे
गो ख़ूँ का क़तरा क़तरा दिल से 'वक़ार' कम हो
लेकिन सुख़न सुख़न से हम ज़म किया करेंगे

ग़ज़ल
हो ईद या मोहर्रम हम ग़म किया करेंगे
किशन कुमार वक़ार