हो अगर दीदा-ए-तर हुस्न-ए-नज़र खुलता है
शौक़-ए-नज़्ज़ारा से एहसास का दर खुलता है
पूरी पड़ती ही नहीं उन को रिदा-ए-ग़ुर्बत
पाँव ढक जाएँ अगर उन के तो सर खुलता है
अज्नबिय्यत की वो दीवारें उठाए जाएँ
उन में दर खुलता है कब अहल-ए-नज़र खुलता है
दिल समझता है कि आसूदगी मंज़िल पर है
देखना ये है कहाँ बार-ए-सफ़र खुलता है
मौजा-ए-शौक़ भी रुख़ अपना बदल ले ऐ काश
बादबाँ कश्ती-ए-उल्फ़त का जिधर खुलता है
हुस्न-ए-ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-आरा है मिज़ाजन फिर भी
शाज़-ओ-नादिर ही वो खुलता है अगर खुलता है
रहगुज़र फ़िक्र-ओ-नज़र की न हो 'राही' महदूद
ख़िज़्र हों साथ तो इम्कान-ए-सफ़र खुलता है
ग़ज़ल
हो अगर दीदा-ए-तर हुस्न-ए-नज़र खुलता है
सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही