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हो अगर दीदा-ए-तर हुस्न-ए-नज़र खुलता है | शाही शायरी
ho agar dida-e-tar husn-e-nazar khulta hai

ग़ज़ल

हो अगर दीदा-ए-तर हुस्न-ए-नज़र खुलता है

सय्यद नवाब हैदर नक़वी राही

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हो अगर दीदा-ए-तर हुस्न-ए-नज़र खुलता है
शौक़-ए-नज़्ज़ारा से एहसास का दर खुलता है

पूरी पड़ती ही नहीं उन को रिदा-ए-ग़ुर्बत
पाँव ढक जाएँ अगर उन के तो सर खुलता है

अज्नबिय्यत की वो दीवारें उठाए जाएँ
उन में दर खुलता है कब अहल-ए-नज़र खुलता है

दिल समझता है कि आसूदगी मंज़िल पर है
देखना ये है कहाँ बार-ए-सफ़र खुलता है

मौजा-ए-शौक़ भी रुख़ अपना बदल ले ऐ काश
बादबाँ कश्ती-ए-उल्फ़त का जिधर खुलता है

हुस्न-ए-ख़ुद-बीन-ओ-ख़ुद-आरा है मिज़ाजन फिर भी
शाज़-ओ-नादिर ही वो खुलता है अगर खुलता है

रहगुज़र फ़िक्र-ओ-नज़र की न हो 'राही' महदूद
ख़िज़्र हों साथ तो इम्कान-ए-सफ़र खुलता है