हिसार-ए-शहर मिला दश्त का मज़ा न मिला
जुनूँ के दौर में भी कोई मश्ग़ला न मिला
अब उस गुलाब ने काँटे की इक चुभन भी न दी
मिला ज़रूर वो मुझ से मगर ख़फ़ा न मिला
न तेरे क़द की कोई बहर-ए-ख़ुश-ख़िराम मिली
ग़ज़ल का ज़िक्र ही क्या कोई क़ाफ़िया न मिला
जो बस चले तो वो सिमटा ले हर नुमू-ए-बदन
हया से अपनी कोई यूँ थका हुआ न मिला
भँवर की चीख़ बुलाती रही मगर ऐ 'शाज़'
अँधेरी रात थी मौजों का नक़्श-ए-पा न मिला
ग़ज़ल
हिसार-ए-शहर मिला दश्त का मज़ा न मिला
शाज़ तमकनत