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हिस नहीं तड़प नहीं बाब-ए-अता भी क्यूँ खुले | शाही शायरी
his nahin taDap nahin bab-e-ata bhi kyun khule

ग़ज़ल

हिस नहीं तड़प नहीं बाब-ए-अता भी क्यूँ खुले

अदा जाफ़री

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हिस नहीं तड़प नहीं बाब-ए-अता भी क्यूँ खुले
हम हैं गिरफ़्ता-दिल अभी हम से सबा भी क्यूँ खुले

अब ये उदास दिन हमें साथ लिए लिए फिरे
ख़्वाब बुझे तो क्या रहा काली घटा भी क्यूँ खुले

दिल का कोई ज़ियाँ नहीं जाँ का मोआ'मला नहीं
हाथ में इक दिया नहीं मौज-ए-हवा भी क्यूँ खुले

याँ किसी रहगुज़र पे कुछ नक़्श-ए-क़दम पड़े रहे
क़ासिद-ए-ख़ुश-ख़बर नहीं शहर-ए-सबा भी क्यूँ खुले

उम्र तमाम काट दी हसरत-ए-काख़-ओ-कू लिए
मेरे तुम्हारे सामने अर्ज़-ओ-समा भी क्यूँ खुले

कूज़ा-ब-कूज़ा बट गईं जितनी भी थीं सदाक़तें
ख़ाली हथेलियों पे अब हर्फ़-ए-दुआ भी क्यूँ खुले

शिद्दत-ए-रक़्स-ए-आरज़ू अपना जवाज़ आप थी
मेरी निगाह पर 'अदा' मेरी ख़ता भी क्यूँ खुले