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हिर ख़ार-ओ-ख़स से वज़्अ निभाते रहे हैं हम | शाही शायरी
hir Khaar-o-KHas se waza nibhate rahe hain hum

ग़ज़ल

हिर ख़ार-ओ-ख़स से वज़्अ निभाते रहे हैं हम

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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हिर ख़ार-ओ-ख़स से वज़्अ निभाते रहे हैं हम
यूँ ज़िंदगी की आग जलाते रहे हैं हम

शीरीनियों को ज़हर के दामों में बीच कर
नग़्मे हयात-ए-नौ के सुनाते रहे हैं हम

इस की तो दाद देगा हमारा कोई रक़ीब
जब संग उठा तो सर भी उठाते रहे हैं हम

ता दिल पे ज़ख़्म और न कोई नया लगे
अपनों से अपना हाल छुपाते रहे हैं हम

तेरे लिए ही रात भर ऐ महर-ए-ज़र-निगार
तारीकियों के नाज़ उठाते रहे हैं हम

अब कोई ताज़ा फूल खिला ख़ाक-ए-पाएमाल!
अपना लहू ज़मीं को पिलाते रहे हैं हम