हिंसा के पहले मुझे फिर रुला गया इक शख़्स
फ़साना कह के फ़साना बना गया इक शख़्स
दिखा के एक झलक अपनी चश्म-ए-मय-गूँ से
मय-ए-नशात ये कैसी पिला गया इक शख़्स
कहूँ तो कैसे कहूँ इक अजीब मंज़र था
निगार-ख़ाना-ए-हस्ती सजा गया इक शख़्स
ख़लिश सी उठती है रह रह के क़ल्ब-ए-मुज़्तर में
था कैसा तीर-ए-नज़र जो चुभा गया इक शख़्स
न जाने आ गया दाम-ए-फ़रेब में कैसे
था सब्ज़ बाग़ जो मुझ को दिखा गया इक शख़्स
थी जिस से शम-ए-शबिस्तान-ए-ज़िंदगी रौशन
जिला के शम-ए-मोहब्बत बुझा गया इक शख़्स
में उस को देख के होश-ओ-हवास खो बैठा
जब आया होश में उठ कर चला गया इक शख़्स
ख़ुमार जिस का अभी तक है सर में 'बर्क़ी' के
शराब-ए-शौक़ का चसका लगा गया इक शख़्स
ग़ज़ल
हिंसा के पहले मुझे फिर रुला गया इक शख़्स
अहमद अली बर्क़ी आज़मी