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हिज्र-ज़दा आँखों से जब आँसू निकले ख़ामोशी से | शाही शायरी
hijr-zada aaankhon se jab aansu nikle KHamoshi se

ग़ज़ल

हिज्र-ज़दा आँखों से जब आँसू निकले ख़ामोशी से

रफ़ीक़ ख़याल

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हिज्र-ज़दा आँखों से जब आँसू निकले ख़ामोशी से
किसी ने समझा रात समय दो दीप जले ख़ामोशी से

मैं भी आग लगा सकता हूँ इस बरसात के मौसम में
थोड़ी दूर तलक वो मेरे साथ चले ख़ामोशी से

शाम की धीमी आँच में जब ख़ुर्शीद नहा कर सो जाए
मंज़र आपस में मिलते हैं ख़ूब गले ख़ामोशी से

बर्फ़ की परतें जब भी देखूँ मैं ऊँची दीवारों पर
जिस्म सुलगने लगता है और दिल पिघले ख़ामोशी से

चाहत के फिर फूल खिलेंगे आप की ये ख़ुश-फ़हमी है
कपड़े मेरे सामने मौसम ने बदले ख़ामोशी से

दिन के उजालों में शायद मैं ख़ुद से बिछड़ा रहता हूँ
रात की तारीकी में इक ख़्वाहिश मचले ख़ामोशी से

जब भी नादीदा सपनों ने मन आँगन में रक़्स किया
तेरी याद के जुगनू चमके रात ढले ख़ामोशी से

मुल्क-ए-सुख़न के शहज़ादों की सफ़ में खड़ा हो जाएगा
गर तिरे लहजे की धड़कन ख़ुश्बू उगले ख़ामोशी से