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हिज्र ओ विसाल की सर्दी गर्मी सहता है | शाही शायरी
hijr o visal ki sardi garmi sahta hai

ग़ज़ल

हिज्र ओ विसाल की सर्दी गर्मी सहता है

ज़हीर काश्मीरी

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हिज्र ओ विसाल की सर्दी गर्मी सहता है
दिल दरवेश है फिर भी राज़ी रहता है

फूल से इतना रब्त बढ़ाना ठीक नहीं
क़तरा-ए-शबनम उड़ते उड़ते कहता है

इस कुटिया को ढाने वाले ग़ौर से सुन
इस कुटिया में तेरा ध्यान भी रहता है

हर आँसू में आतिश की आमेज़िश है
दिल में शायद आग का दरिया बहता है

मुझ से बिछड़ कर पहरों रोया करता था
वो जो मेरे हाल पे हँसता रहता है

दिल को शायद फ़स्ल-ए-बहाराँ रास नहीं
बाग़ में रह कर ख़ुश्बू के दुख सहता है

मैं ने उस को अपना मसीहा मान लिया
सारा ज़माना जिस को क़ातिल कहता है

तारा तारा हिज्र के क़िस्सा फैले हैं
आँसू आँसू दिल का सागर बहता है

उन होंटों से यूँ रिसती है बात 'ज़हीर'
जैसे इक नग़्मों का झरना बहता है