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हिज्र में जो अश्क-ए-चश्म-ए-तर गिरा | शाही शायरी
hijr mein jo ashk-e-chashm-e-tar gira

ग़ज़ल

हिज्र में जो अश्क-ए-चश्म-ए-तर गिरा

बदर जमाली

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हिज्र में जो अश्क-ए-चश्म-ए-तर गिरा
इक पयाम हाल-ए-दिल बन कर गिरा

दोस्तों के तंज़ का एक एक तीर
बर्क़ बन बन कर मिरे दिल पर गिरा

जब उठाया बज़्म से उस शोख़ ने
मैं उठा उठ कर चला चल कर गिरा

वाए इक मुफ़लिस का था सब कुछ वही
इन दिनों सैलाब में जो घर गिरा

क्या ग़ज़ब है ज़िंदगी की दौड़ में
राहज़न आगे बढ़ा रहबर गिरा