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हिज्र की शब है और उजाला है | शाही शायरी
hijr ki shab hai aur ujala hai

ग़ज़ल

हिज्र की शब है और उजाला है

ख़ुमार बाराबंकवी

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हिज्र की शब है और उजाला है
क्या तसव्वुर भी लुटने वाला है

ग़म तो है ऐन-ए-ज़िंदगी लेकिन
ग़म-गुसारों ने मार डाला है

इश्क़ मजबूर ओ ना-मुराद सही
फिर भी ज़ालिम का बोल-बाला है

देख कर बर्क़ की परेशानी
आशियाँ ख़ुद ही फूँक डाला है

कितने अश्कों को कितनी आहों को
इक तबस्सुम में उस ने ढाला है

तेरी बातों को मैं ने ऐ वाइ'ज़
एहतिरामन हँसी में टाला है

मौत आए तो दिन फिरें शायद
ज़िंदगी ने तो मार डाला है

शेर नग़्मा शगुफ़्तगी मस्ती
ग़म का जो रूप है निराला है

लग़्ज़िशें मुस्कुराई हैं क्या क्या
होश ने जब मुझे सँभाला है

दम अँधेरे में घुट रहा है 'ख़ुमार'
और चारों तरफ़ उजाला है