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हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे | शाही शायरी
hijr ki raat meri jaan pe bani ho jaise

ग़ज़ल

हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे

शहज़ाद अहमद

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हिज्र की रात मिरी जाँ पे बनी हो जैसे
दिल में इक याद कि नेज़े की अनी हो जैसे

नहीं मालूम कि मैं कौन हूँ मंज़िल है कहाँ
चादर-ए-ख़ाक हर इक सम्त तनी हो जैसे

अपनी आवाज़ को ख़ुद सुन के लरज़ जाता हूँ
किसी साए से मिरी हम-सुख़नी हो जैसे

हादसा एक मगर कितने ग़मों का एहसास
एक सूरत कई रंगों से बनी हो जैसे

भूल कर भी कोई लेता नहीं अब नाम-ए-वफ़ा
इश्क़ इस शहर में गर्दन-ज़दनी हो जैसे

कितने आराम से हूँ अर्सा-ए-तन्हाई में
गोशा-ए-दश्त में भी छाँव घनी हो जैसे

किस क़दर नर्म ओ दिल-आवेज़ है ये गर्म सहर
धूप महताब की चादर में छनी हो जैसे

कभी सीने से भी फूलों की महक आती है
दिल में भी कोई फ़ज़ा-ए-चमनी हो जैसे

जिस्म वो जिस्म कि लपका हुआ कौंदा कोई
होंट वो होंट कि लाल-ए-यमनी हो जैसे

दिल में चुभती भी रही आँख में खुब्ती भी रही
मिज़ा-ए-तेज़ कि हीरे की कनी हो जैसे

ख़ुद ही तस्वीर बनाता हूँ मिटा देता हूँ
बुत-गरी मेरे लिए बुत-शिकनी हो जैसे

कम नहीं हिम्मत-ए-फ़रहाद से सई-ए-तख़्लीक़
किसी शीरीं के लिए कोह-कनी हो जैसे

महफ़िल-ए-दोस्त की रौनक़ में हैं 'शहज़ाद' मगर
दिल का ये हाल ग़रीब-उल-वतनी हो जैसे