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हिज्र की मंज़िल हमें अब के पसंद आई नहीं | शाही शायरी
hijr ki manzil hamein ab ke pasand aai nahin

ग़ज़ल

हिज्र की मंज़िल हमें अब के पसंद आई नहीं

महताब हैदर नक़वी

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हिज्र की मंज़िल हमें अब के पसंद आई नहीं
हम अकेले हैं मगर हमराह तन्हाई नहीं

एक दिन छिन जाएगा आँखों से सारा रंग-ओ-नूर
देख लो उन को कि ये मंज़र हमेशाई नहीं

इक जुनूँ के वास्ते बस्ती को वुसअत दी गई
एक वहशत के लिए सहरा में पहनाई नहीं

कौन से मंज़र की ताबानी अंधेरा कर गई
ऐसा क्या देखा कि अब आँखों में बीनाई नहीं

जब कभी फ़ुर्सत मिलेगी देख लेंगे सारे ख़्वाब
ख़्वाब भी अपने हैं ये रातें भी हरजाई नहीं