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हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है | शाही शायरी
hijr ke tapte mausam mein bhi dil un se wabasta hai

ग़ज़ल

हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

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हिज्र के तपते मौसम में भी दिल उन से वाबस्ता है
अब तक याद का पत्ता पत्ता डाली से पैवस्ता है

मुद्दत गुज़री दूर से मैं ने एक सफ़ीना देखा था
अब तक ख़्वाब में आ कर शब भर दरिया मुझ को डसता है

शाम-ए-अबद तक टकराने का इज़्न नहीं है दोनों को
चाँद उसी पर गर्म-ए-सफ़र है जो सूरज का रस्ता है

तेज़ नहीं गर आँच बदन की जम जाओगे रस्ते में
उस बस्ती को जाने वाली पगडंडी यख़-बस्ता है

आया है इक राह-नुमा के इस्तिक़बाल को इक बच्चा
पेट है ख़ाली आँख में हसरत हाथों में गुल-दस्ता है

लफ़्ज़ों का बेवपार न आया उस को किसी महँगाई में
कल भी 'क़ासिर' कम-क़ीमत था आज भी क़ासिर सस्ता है