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हिज्र के मौसम में यादें वस्ल की रातों में हैं | शाही शायरी
hijr ke mausam mein yaaden wasl ki raaton mein hain

ग़ज़ल

हिज्र के मौसम में यादें वस्ल की रातों में हैं

असअ'द बदायुनी

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हिज्र के मौसम में यादें वस्ल की रातों में हैं
कुछ गिले-शिकवे यक़ीनन सब मुनाजातों में हैं

धूप के मौसम में थे पायाब दरिया सब मगर
कैसे कैसे ख़ुश्क मंज़र अब के बरसातों में हैं

हैं मोअ'त्तर अब भी शामें तेरी ख़ुश्बू के तुफ़ैल
ज़ौ-फ़िशाँ जुगनू तिरे अब भी मिरी रातों में हैं

तिश्नगी सदियों की क़ुर्बत से न बुझ पाई मिरी
लोग कितने मुतमइन थोड़ी मुलाक़ातों में हैं

दूसरों ने अपनी तक़दीरों के बल सुलझा लिए
ज़ुल्फ़-ए-पेचाँ हम अभी उलझे तिरी बातों में हैं

बस गए शहर-ए-हक़ीक़त में वो जिन के दिल नहीं
अहल-ए-दिल तो अब भी ख़्वाबों के मुज़ाफ़ातों में हैं

आज टूटेगा यक़ीनन फिर तिलिस्म-ए-आइना
सारे चेहरे मुश्तइ'ल हैं संग सब हाथों में हैं