हिज्र का चाँद दर्द की नद्दी
यही सूरत है अपनी दुनिया की
रेगज़ारों में संग खिलते हैं
जैसे बाग़ों में शाख़ शाख़ कली
मेरा घर है कि 'मीर'-साहिब का
उफ़ ये होंटों पे तल्ख़ तल्ख़ हँसी
आ गया मौसम-ए-ज़मिस्ताँ क्या
आग की जुस्तुजू में रात कटी
कू-ब-कू दर-ब-दर भटकते हुए
देख ली आज मौत की भी गली
क़ुफ़्ल होंटों का टूट कर ही रहा
दिल-ए-अफ़सुर्दा रात बीत चली
एक चलती हुई ग़ज़ल पर रात
'राही'-ए-ग़म-ज़दा ने नज़्म कही

ग़ज़ल
हिज्र का चाँद दर्द की नद्दी
एम कोठियावी राही