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हिफ़्ज़-ए-गुल के लिए रखते जो निगहबाँ कुछ और | शाही शायरी
hifz-e-gul ke liye rakhte jo nigahban kuchh aur

ग़ज़ल

हिफ़्ज़-ए-गुल के लिए रखते जो निगहबाँ कुछ और

अहसन अली ख़ाँ

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हिफ़्ज़-ए-गुल के लिए रखते जो निगहबाँ कुछ और
हो गया फूलों से महरूम गुलिस्ताँ कुछ और

लुट के सहमे हुए पौदों ने ये सरगोशी की
अब निगहबानों पे रक्खेंगे निगहबाँ कुछ और

शहर-ए-दिल कुछ तो सजा लें कि भरम रह जाए
हुस्न-ए-फ़ातेह को हैं ताराज के अरमाँ कुछ और

वक़्त हर साँस के बदले में पसीना माँगे
दिल ये चाहे कि हो आसान भी आसाँ कुछ और

शहर से फिर कोई वहशी इधर आया शायद
आज सहरा में हैं अंदाज़-ए-ग़ज़ालाँ कुछ और

जिन को मश्शातगी-ए-ज़ुल्फ़ का दा'वा था बहुत
कर गए गेसू-ए-गेती वो परेशाँ कुछ और

फिर कभी हो कि न हो मिलने की सूरत पैदा
चंद साअ'त ही चले महफ़िल-ए-याराँ कुछ और

कुछ न होने पे बहुत कुछ है मयस्सर 'अहसन'
काश होते तिरे मामूरे में इंसाँ कुछ और