EN اردو
हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए | शाही शायरी
hazar phul liye mausam-e-bahaar aae

ग़ज़ल

हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए

साक़िब लखनवी

;

हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए
जो दिल हो सूख के काँटा तो क्या क़रार आए

जवाब ले के फिरी शुक्र नज़'अ की हिचकी
वो अब पुकारते हैं हम जिन्हें पुकार आए

सुलझ सकीं न मिरी मुश्किलें मगर देखा
उलझ गए थे जो गेसू उन्हें सँवार आए

फ़लक को देख के हँसते ये गुल तो अच्छा था
जो अब्र आए वो गुलशन पे अश्क-बार आए

बहुत से याद हैं महफ़िल में बैठने वाले
कभी तो भूल के कोई सर-ए-मज़ार आए

अभी है ग़ुंचा-ए-दिल की शगुफ़्तगी मुमकिन
हज़ार बार अगर मौसम-ए-बहार आए

ये बे-मुरवव्तियाँ देखिए कि लब न हिले
जो पास थे हम उन्हें दूर तक पुकार आए

जवाब मिल तो गया गो वो दिल-शिकन ही सही
यही सदा मिरे मालिक फिर एक बार आए

अँधेरी रात थी अच्छा किया जो ऐ 'साक़िब'
चराग़ ले के सू-ए-ज़ुल्मत-ए-मज़ार आए