हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए
जो दिल हो सूख के काँटा तो क्या क़रार आए
जवाब ले के फिरी शुक्र नज़'अ की हिचकी
वो अब पुकारते हैं हम जिन्हें पुकार आए
सुलझ सकीं न मिरी मुश्किलें मगर देखा
उलझ गए थे जो गेसू उन्हें सँवार आए
फ़लक को देख के हँसते ये गुल तो अच्छा था
जो अब्र आए वो गुलशन पे अश्क-बार आए
बहुत से याद हैं महफ़िल में बैठने वाले
कभी तो भूल के कोई सर-ए-मज़ार आए
अभी है ग़ुंचा-ए-दिल की शगुफ़्तगी मुमकिन
हज़ार बार अगर मौसम-ए-बहार आए
ये बे-मुरवव्तियाँ देखिए कि लब न हिले
जो पास थे हम उन्हें दूर तक पुकार आए
जवाब मिल तो गया गो वो दिल-शिकन ही सही
यही सदा मिरे मालिक फिर एक बार आए
अँधेरी रात थी अच्छा किया जो ऐ 'साक़िब'
चराग़ ले के सू-ए-ज़ुल्मत-ए-मज़ार आए
ग़ज़ल
हज़ार फूल लिए मौसम-ए-बहार आए
साक़िब लखनवी