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हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं | शाही शायरी
hazar jaan se sahab nisar hum bhi hain

ग़ज़ल

हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं

आग़ा अकबराबादी

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हज़ार जान से साहब निसार हम भी हैं
तुम्हारी तीर-ए-निगह के शिकार हम भी हैं

अज़ल से दाख़िल-ए-फ़र्द-ए-शुमार हम भी हैं
तुम्हारे चाहने वालों में यार हम भी हैं

हमेशा हम से कुदूरत रही हसीनों को
न दिल से निकले कभी वो ग़ुबार हम भी हैं

मुसाफ़िरों की तवाज़ो से नाम होता है
करम करो कि ग़रीब-उद-दयार हम भी हैं

शराब पीते हैं तो जागते हैं सारी रात
मुदाम आबिद-ए-शब-ज़िंदादार हम भी हैं

हज़ार बार हसीनों से हम ने नोक की ली
गुलों की आँख में खटके वो ख़ार हम भी हैं

अजीब रुत्बा इनायत किया है क़म्बर को
ग़ुलाम या शह-ए-दुलदुल-सवार हम भी हैं

जुनूँ के हाथ से है इन दिनों गरेबाँ तंग
क़बा पुकारती है तार तार हम भी हैं

बड़े ही चालिए हैं चाल चलते हैं हर दम
वो चूकते नहीं पर होशियार हम भी हैं

रक़ीब को भी है बार उन की बज़्म में 'आग़ा'
शरीक-ए-सोहबत-ए-बोस-ओ-कनार हम भी हैं