हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं
वो क़ाफ़िले जो तिरी रहगुज़र से गुज़रे हैं
अभी हवस को मयस्सर नहीं दिलों का गुदाज़
अभी ये लोग मक़ाम-ए-नज़र से गुज़रे हैं
हर एक नक़्श पे था तेरे नक़्श-ए-पा गुमाँ
क़दम क़दम पे तिरी रहगुज़र से गुज़रे हैं
न जाने कौन सी मंज़िल पे जा के रुक जाएँ
नज़र के क़ाफ़िले दीवार-ओ-दर से गुज़रे हैं
रहील-ए-शौक़ से लर्ज़ां था ज़िंदगी का शुऊर
न जाने किस लिए हम बे-ख़बर से गुज़रे हैं
कुछ और फैल गईं दर्द की कठिन राहें
ग़म-ए-फ़िराक़ के मारे जिधर से गुज़रे हैं
जहाँ सुरूर मयस्सर था जाम ओ मय के बग़ैर
वो मय-कदे भी हमारी नज़र से गुज़रे हैं
ग़ज़ल
हज़ार गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर से गुज़रे हैं
सूफ़ी तबस्सुम