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हज़ार बार वो बैठा हज़ार बार उठा | शाही शायरी
hazar bar wo baiTha hazar bar uTha

ग़ज़ल

हज़ार बार वो बैठा हज़ार बार उठा

इक़तिदार जावेद

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हज़ार बार वो बैठा हज़ार बार उठा
बचा न शहर में कुछ भी तो चोबदार उठा

अज़ल से राह-नवर्दी जो थी वो अब भी है
अभी छटा था अभी राह में ग़ुबार उठा

नफ़स के तार की गिर्हें कि काएनात के ख़म
सराब दिल में था सहरा के आर-पार उठा

ख़मोशियों के तकल्लुम को पूजने वाला
वही था बज़्म में आख़िर गुनाहगार उठा

वो साथ था तो मुक़द्दस थे मेरे सारे हुरूफ़
बिछड़ गया है तो लफ़्ज़ों का ए'तिबार उठा