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हयात रास न आए अजल बहाना करे | शाही शायरी
hayat ras na aae ajal bahana kare

ग़ज़ल

हयात रास न आए अजल बहाना करे

शाज़ तमकनत

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हयात रास न आए अजल बहाना करे
तिरे बग़ैर भी जीना पड़े ख़ुदा न करे

मैं रोज़ मरता हूँ इस इंतिज़ार के सदक़े
बुरा न मान अगर ज़िंदगी वफ़ा न करे

हम एक हो गए दो दिन में किस तरह अल्लाह
यही दुआ है कोई तीसरा जुदा न करे

मनाया जश्न-ए-शब-ए-ग़म कि एक दिन तो कटा
जो तुझ से छूट के जीता रहे वो क्या न करे

मैं अपनी रौशनी-ए-तब्अ से लरज़ता हूँ
मिरा जुनूँ मुझे मंज़िल से आश्ना न करे

मैं क्या बताऊँ कि क़ुर्बत का फ़ासला क्या है
कि जैसे घर तो बनाए कोई रहा न करे