हयात-ओ-मौत के पर्दे गिरा के
तुम्हें देखा है तुम से भी छुपा के
मुझे तड़पा रहे हैं याद आ के
वो लम्हात-ए-हसीं अहद-ए-वफ़ा के
वहाँ दामन को उलझाए हुए हूँ
गुज़रना था जहाँ दामन बचा के
मिरी ख़ुद्दारियों की लाज रख ली
मैं सदक़े उस दिल-ए-बे-मुद्दआ के
तिरी महफ़िल में ख़ाली हाथ आए
किसी उम्मीद पर सब कुछ लुटा के
ख़यालों में तिरे आँचल को देखा
सितारे जब भी चटके मुस्कुरा के
ख़बर भी है तुझे ऐ जान-ए-'मैकश'
फ़साने बन गए हर हर अदा के

ग़ज़ल
हयात-ओ-मौत के पर्दे गिरा के
मसूद मैकश मुरादाबादी