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हयात-ओ-मौत का इक सिलसिला है | शाही शायरी
hayat-o-maut ka ek silsila hai

ग़ज़ल

हयात-ओ-मौत का इक सिलसिला है

बासित भोपाली

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हयात-ओ-मौत का इक सिलसिला है
मोहब्बत इंतिहा तक इब्तिदा है

मैं क्या जानूँ कि बाब-ए-तौबा क्या है
अभी तो मय-कदे का दर खुला है

ज़रा फिर दिल पे नज़रें डाल दीजे
चराग़-ए-आरज़ू ख़ामोश सा है

अता कर दी तुम्हारी आरज़ू ने
वो इक दुनिया जो दुनिया से जुदा है

हसीं हों लाख दुनिया के मनाज़िर
वो क्या देखे जो तुम को देखता है

नज़र के साथ नज़्ज़ारा भी गुम है
दिल-ए-मुज़्तर ये किस का सामना है

मिरे दिल को न रख बे-रंग साक़ी
कि हर साग़र गुलाबी हो रहा है

न दोज़ख़ है न जन्नत है तो 'बासित'
मिरे आ'माल-ए-ग़म का क्या सिला है