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हयात में भी अजल का समाँ दिखाई दे | शाही शायरी
hayat mein bhi ajal ka saman dikhai de

ग़ज़ल

हयात में भी अजल का समाँ दिखाई दे

शहाब जाफ़री

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हयात में भी अजल का समाँ दिखाई दे
वही ज़मीन वही आसमाँ दिखाई दे

क़दम ज़मीं से जुदा हैं नज़र मनाज़िर से
ग़रीब-ए-शहर को शहर आसमाँ दिखाई दे

तमाम शहर में बे-चेहरगी का आलम है
जिसे भी देखिए गर्द और धुआँ दिखाई दे

इक एक शख़्स हुजूम-ए-रवाँ में तन्हा है
इक एक शख़्स हुजूम-ए-रवाँ दिखाई दे

कभी सुनो तो मकीनों का गिर्या-ए-सहरी
लहूलुहान सा एक इक मकाँ दिखाई दे

मकीं हूँ मैं कि मुसाफ़िर ये दश्त है कि दयार
क़याम में भी सफ़र का समाँ दिखाई दे

दरून-ए-दिल हो कि बैरून-ए-दिल सफ़र अपना
कहीं लहद कहीं ख़ाली मकाँ दिखाई दे

वो धूप है कि सुलगता है साया पावँ तले
ख़मीर-ए-ख़ाक भी आग और धुआँ दिखाई दे

है जिस्म शो'ला ही शो'ला तो जाँ है प्यास ही प्यास
और अपना साया सराब-ए-तपाँ दिखाई दे

मैं किस तरफ़ को बढ़ूँ आसमान है न ज़मीं
मैं जिस तरफ़ भी चलूँ ख़ौफ़-ए-जाँ दिखाई दे

ज़मीन है कि फ़लक पाँव किस जगह हैं नदीम!
मुझे बता, मुझे सब कुछ धुआँ दिखाई दे

सब अपने दर्द के दोज़ख़ में जल रहे हैं 'शहाब'
मगर ज़मीं हमें जन्नत-निशाँ दिखाई दे