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हयात इक साज़-ए-बे-सदा थी सुरूद-ए-उम्र-ए-रवाँ से पहले | शाही शायरी
hayat ek saz-e-be-sada thi surud-e-umr-e-rawan se pahle

ग़ज़ल

हयात इक साज़-ए-बे-सदा थी सुरूद-ए-उम्र-ए-रवाँ से पहले

आनंद नारायण मुल्ला

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हयात इक साज़-ए-बे-सदा थी सुरूद-ए-उम्र-ए-रवाँ से पहले
बशर की तक़दीर सो रही थी ख़ता-ए-बाग़-ए-जिनाँ से पहले

नज़र ने की नज़र-ए-रूह-ओ-दिल पेश-ए-लब पे शोर-ए-फ़ुग़ाँ से पहले
अदा हुआ सज्दा-ए-मुहब्बत ख़रोश-ए-बांग-ए-अज़ाँ से पहले

बदल गया इश्क़ का ज़माना कहाँ से पहुँचा कहाँ फ़साना
उन्हें भी मुझ पर ज़बान आई वही जो थे बे-ज़बाँ से पहले

किसे ख़बर थी कि बन के बर्क़-ए-ग़ज़ब गिरेगा यही चमन पर
वो हुस्न जो मुस्कुरा रहा था नक़ाब-ए-अबर-ए-रवाँ से पहले

सितम तो शायद मैं भूल जाता अगर ये नश्तर चुभा न होता
वो इक निगाह-ए-करम जो की थी निगाह-ए-ना-मेहरबाँ से पहले

नज़र है वीराँ मिरी तो क्या ग़म नज़र के जल्वे तो हैं सलामत
न थे तुम इतने हसीं मिरी मोहब्बत-ए-राएगाँ से पहले

तिरी तरफ़ फिर नज़र करूँगा निशात-ए-हस्ती-ए-जाविदानी
ख़रीद लूँ अज़्ज़त-ए-अलम कुछ मता-ए-उम्र-ए-रवाँ से पहले

बिछड़ गए राह ज़ीस्त में हम तुम्हें भी इस का अगर है कुछ ग़म
चलें वहीं से फिर आओ बाहम चले थे हम तुम जहाँ से पहले

क़फ़स की लोहे की तीलियाँ अब उन्हीं की ज़र्बों से ख़ूँ-चकाँ हैं
यही जो थे मुंतशिर से तिनके तसव्वुर-ए-आशियाँ से पहले

चमन में हँसने से फिर न रोकूँगा गुंचा-ए-सादा-लौह तुझ को
मगर ज़रा आश्ना तो हो जा तबीअत-ए-बाग़बाँ से पहले

नज़र के शो'ले दिलों में इक आग हर दो जानिब लगा चुके हैं
बस अब तो ये रह गया है बाक़ी कि लौ उठेगी कहाँ से पहले

न ढूँडो 'मुल्ला' को कारवाँ में फिरेगा सहरा में वो अकेला
किसी सबब से जो ता-ब-मंज़िल न आ सका कारवाँ से पहले