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हयात ढूँढ रहा हूँ क़ज़ा की राहों में | शाही शायरी
hayat DhunDh raha hun qaza ki rahon mein

ग़ज़ल

हयात ढूँढ रहा हूँ क़ज़ा की राहों में

बदनाम नज़र

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हयात ढूँढ रहा हूँ क़ज़ा की राहों में
पनाह माँगने आया हूँ बे-पनाहों में

बदन ममी था नज़र बर्फ़ साँस काफ़ूरी
तमाम रात गुज़ारी है सर्द बाँहों में

अब उन में शोले जहन्नम के रक़्स करते हैं
बसे थे कितने ही फ़िरदौस जिन निगाहों में

बुझी जो रात तो अपनी गली की याद आई
उलझ गया था मैं रंगीन शाह-राहों में

न जाने क्या हुआ अपना भी अब नहीं है वो
जो एक उम्र था दुनिया के ख़ैर-ख़्वाहों में

मिरी तलाश को जिस इल्म से क़रार आए
न ख़ानक़ाहों में पाई न दर्स-गाहों में