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हवस ओ वफ़ा की सियासतों में भी कामयाब नहीं रहा | शाही शायरी
hawas o wafa ki siyasaton mein bhi kaamyab nahin raha

ग़ज़ल

हवस ओ वफ़ा की सियासतों में भी कामयाब नहीं रहा

सहर अंसारी

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हवस ओ वफ़ा की सियासतों में भी कामयाब नहीं रहा
कोई चेहरा ऐसा भी चाहिए जो पस-ए-नक़ाब नहीं रहा

तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
ये सवाल वो है कि जिस का अब कोई इक जवाब नहीं रहा

थीं समाअतें सर हाव-हू छिड़ी क़िस्सा-ख़ानों की गुफ़्तुगू
वही जिस ने बज़्म सजाई थी वही बारयाब नहीं रहा

कम ओ बेश एक से पैरहन कम ओ बेश एक सा है चलन
सर-ए-रहगुज़र किसी वस्फ़ का कोई इन्तिख़ाब नहीं रहा

वो किताब-ए-दिल जिसे रब्त था तिरे कैफ़-ए-हिज्र-ओ-विसाल से
वो किताब-ए-दिल तो लिखी गई मगर इंतिसाब नहीं रहा

मैं हर एक शब यही बंद आँखों से पूछता हूँ सहर तलक
कि ये नींद किस लिए उड़ गई अगर एक ख़्वाब नहीं रहा

यहाँ रास्ते भी हैं बे-शजर है मुनाफ़िक़त भी यहाँ हुनर
मुझे अपने आप पे फ़ख़्र है कि मैं कामयाब नहीं रहा

फ़क़त एक लम्हे में मुन्कशिफ़ हुई शम-ए-मौसम-ए-आरज़ू
'सहर' उस के चेहरे की सम्त जब गुल-ए-आफ़्ताब नहीं रहा