हवस कीजे न उम्र-ए-जावेदाँ की
है उम्र-ए-ख़िज़्र भी ऐसी कहाँ की
किसे ख़्वाहिश है उम्र-ए-जावेदाँ की
कहाँ तक ठोकरें खाएँ यहाँ की
उड़ा कर ख़ाक वहशी ने तुम्हारे
बिना-ए-ताज़ा डाली आसमाँ की
बहुत दौर-ए-फ़लक ने रंग बदले
न ख़ू बदली मगर उस बद-गुमाँ की
ख़रीदारो चलो सौदा ख़रीदो
सर-ए-बाज़ार 'आशिक़' ने दुकाँ की
ग़ज़ल
हवस कीजे न उम्र-ए-जावेदाँ की
आशिक़ अकबराबादी