हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया
वो ख़ुद ही जम्अ हुआ और ख़ुद बिखर भी गया
थी ज़िंदगी मिरी राहों के पेच-ओ-ख़म की असीर
मगर मैं रात के हमराह अपने घर भी गया
मैं दुश्मनों में भी घिर कर निडर रहा लेकिन
ख़ुद अपने जज़्बा-ए-हैवानियत से डर भी गया
मिरे लहू की तलब ने मुझे तबाह किया
हवस में संग की हाथों से मेरे सर भी गया
है लफ़्ज़-ओ-मा'नी का रिश्ता ज़वाल-आमादा
ख़याल पैदा हुआ भी न था कि मर भी गया
सिला ये मंज़िल-ए-मक़्सूद का मिला 'शादाब'
सफ़र तमाम हुआ और हम-सफ़र भी गया
ग़ज़ल
हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया
अक़ील शादाब