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हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया | शाही शायरी
hawas ka rang chaDha us pe aur utar bhi gaya

ग़ज़ल

हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया

अक़ील शादाब

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हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया
वो ख़ुद ही जम्अ हुआ और ख़ुद बिखर भी गया

थी ज़िंदगी मिरी राहों के पेच-ओ-ख़म की असीर
मगर मैं रात के हमराह अपने घर भी गया

मैं दुश्मनों में भी घिर कर निडर रहा लेकिन
ख़ुद अपने जज़्बा-ए-हैवानियत से डर भी गया

मिरे लहू की तलब ने मुझे तबाह किया
हवस में संग की हाथों से मेरे सर भी गया

है लफ़्ज़-ओ-मा'नी का रिश्ता ज़वाल-आमादा
ख़याल पैदा हुआ भी न था कि मर भी गया

सिला ये मंज़िल-ए-मक़्सूद का मिला 'शादाब'
सफ़र तमाम हुआ और हम-सफ़र भी गया