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हवाओं से उलझे शजर रात-भर | शाही शायरी
hawaon se uljhe shajar raat-bhar

ग़ज़ल

हवाओं से उलझे शजर रात-भर

मुनीर सैफ़ी

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हवाओं से उलझे शजर रात-भर
लरज़ता रहा मेरा घर रात-भर

ज़रूर उस में माज़ी के आसेब हैं
सिसकता बहुत है खंडर रात-भर

मैं गिरता हूँ बिस्तर पे जब टूट कर
उदासी दबाती है सर रात-भर

बला अब मिरे शहर में आएगी
कि रोता है इक जानवर रात-भर

उसे भी मिरा ख़ौफ़ डसता रहा
मुझे भी रहा उस का डर रात-भर