EN اردو
हवाओं का जो शह-पर बोलता है | शाही शायरी
hawaon ka jo shah-par bolta hai

ग़ज़ल

हवाओं का जो शह-पर बोलता है

मुनीर सैफ़ी

;

हवाओं का जो शह-पर बोलता है
हमारे घर का छप्पर बोलता है

वही मंज़र-ब-मंज़र बोलता है
ग़ज़ल चेहरा बदन भर बोलता है

फ़लक सहरा समुंदर बोलता है
तिलिस्म-ए-ख़्वाब शब-भर बोलता है

कई फ़ाक़ों का मज़हर बोलता है
शिकम-परवर जो पत्थर बोलता है

ख़मोशी ओढ़ लेता है फ़लक-भर
कभी वो शख़्स अक्सर बोलता है

कभी करते हैं सज्दे चाँद-तारे
कभी मुट्ठी में कंकर बोलता है

पिघलती जा रही है बर्फ़ सारी
तबाही का समुंदर बोलता है

मैं अपने आप से करता हूँ बातें
कि ख़ुद मुझ से मिरा घर बोलता है

पहन लेता है वो जो कुछ भी 'सैफ़ी'
बहुत उस के बदन पर बोलता है