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हवाएँ चाँदनी में काँपती हैं | शाही शायरी
hawaen chandni mein kanpti hain

ग़ज़ल

हवाएँ चाँदनी में काँपती हैं

शाहिदा तबस्सुम

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हवाएँ चाँदनी में काँपती हैं
मिरा महताब दुख पहचानती हैं

उतर सकती नहीं हुस्न-ए-बयाँ में
जो रातें हर्फ़-ए-जाँ को काटती हैं

भँवर पायल मिरे पैरों से उलझी
तिरी यादों की लहरें नाचती हैं

मिरी आँखों में साहिल तक नमी है
मगर नज़रें कि सहरा छानती हैं

बदन में चुप अंधेरा सो रहा है
उमंगें एक तारा माँगती हैं

हरी ये किश्त-ए-जाँ क्या हो सकेगी
ज़मीनें तो नुमू से भागती हैं