EN اردو
हवादिसात के मारे सऊबतों में पले | शाही शायरी
hawadisat ke mare saubaton mein pale

ग़ज़ल

हवादिसात के मारे सऊबतों में पले

जलील शेरकोटी

;

हवादिसात के मारे सऊबतों में पले
निगाह-ए-गर्म से तरसाँ हों बिजलियों के जले

वो बुत-कदा था जहाँ सर झुके चराग़ जले
ये मय-कदा है यहाँ ख़म उठे शराब चले

ये रक़्स-ए-अंजुम-ओ-महताब ये समाँ ये सुकूँ
ये दौर-ए-मय अभी कुछ और थोड़ी देर चले

जो अपने आप ही में कर्दा-राह-ए-मंज़िल थे
रह-ए-हयात में कुछ ऐसे रहनुमा भी मिले

बिसात-ए-अंजुम-ओ-मह हो कि मय-कदे का ख़रोश
ये बज़्म रंग पे आती है अपनी रात ढले

ज़िया वो दी है मिरे दाग़-हा-ए-दिल ने कि बस
चराग़-ए-बज़्म-ए-तमन्ना न एक रात जले

जो अपनी क़ौम की कश्ती कि ख़ुद डुबो डाले
हम ऐसे राहबर-ए-क़ौम के बग़ैर भले

इसी तज़ाद में मुज़्मर है ज़िंदगी का फ़ुसूँ
कहीं चराग़ बुझे और कहीं चराग़ जले

ख़ुदा बचाए बस उस मीर-ए-कारवाँ से 'जलील'
जो काट लेता हो ख़ुद अहल-ए-कारवाँ के गले