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हवा कुछ अपने सवाल तहरीर देखती है | शाही शायरी
hawa kuchh apne sawal tahrir dekhti hai

ग़ज़ल

हवा कुछ अपने सवाल तहरीर देखती है

किश्वर नाहीद

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हवा कुछ अपने सवाल तहरीर देखती है
कि बादलों को भी मिस्ल-ए-ज़ंजीर देखती है

मुझे बुलाता है फिर वही शहर-ए-ना-मुरादी
कि आरज़ू आबलों में तस्वीर देखती है

जो कश्तियों में न बैठ पाए वो घर न पहुँचे
सफ़र की ताईद शाम-ए-तक़्सीर देखती है

बहुत दिनों में सितम के दरिया का ज़ोर टूटा
सरिश्त-ए-शब भी बरहना ताज़ीर देखती है

समुंदरों का उरूज फिर रेत बन गया है
शहाब-ए-साक़िब में रात तफ़्सीर देखती है

हवा चली थी प शहर-ए-जाँ के थे दर मुक़फ़्फ़ल
ये आँख अपने ही ख़्वाब ताख़ीर देखती है

सुबू लिए तिश्नगी खड़ी थी ये जानती थी
कि जाँ-फ़रोशों को क़ौस-ए-शमशीर देखती है

नियाबत-ए-शहर उन के हाथों में अब न होगी
कमान-दारों को शब की ज़ंजीर देखती है