EN اردو
हवा के लम्स से भड़का भी हूँ मैं | शाही शायरी
hawa ke lams se bhaDka bhi hun main

ग़ज़ल

हवा के लम्स से भड़का भी हूँ मैं

राशिद मुफ़्ती

;

हवा के लम्स से भड़का भी हूँ मैं
शरारा ही नहीं शोला भी हूँ मैं

वो जिन की आँख का तारा भी हूँ मैं
उन ही के पाँव का छाला भी हूँ मैं

अकहरा है मिरा पैराहन-ए-ज़ात
बुरा हूँ या भला जैसा भी हूँ मैं

हवा ने छीन ली है मेरी ख़ुश्बू
मिसाल-ए-गुल अगर महका भी हूँ मैं

मिरे रस्ते में हाइल है जो दीवार
उसी के साए में बैठा भी हूँ मैं

तरस जाता हूँ जिस के देखने को
उसी इक शख़्स से बचता भी हूँ मैं

मैं जिन लोगों की सूरत से हूँ बे-ज़ार
उन्ही में रात दिन रहता भी हूँ मैं

जो मेरी ख़ुश-लिबासी के हैं क़ाएल
उन ही के सामने नंगा भी हूँ मैं

सरासर झूट है जो बात मेरी
उसी इक बात में सच्चा भी हूँ मैं

अगरचे फ़ितरतन कम-गो हूँ फिर भी
जो सच पूछो तो कुछ बनता भी हूँ मैं

बहुत इस शहर में रुस्वा हूँ 'राशिद'
मगर क्या वाक़ई ऐसा भी हूँ मैं