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हवा के लब पे नए इंतिसाब से कुछ हैं | शाही शायरी
hawa ke lab pe nae intisab se kuchh hain

ग़ज़ल

हवा के लब पे नए इंतिसाब से कुछ हैं

अज़रा वहीद

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हवा के लब पे नए इंतिसाब से कुछ हैं
कि शाख़-ए-वस्ल पे ताज़ा गुलाब से कुछ हैं

ये पल का क़िस्सा है सदियों पे जो मुहीत रहा
बर-आब साअत-ए-गुज़राँ हबाब से कुछ हैं

हुजूम हम को सर आँखों पे क्यूँ बिठाए रहा
दिल-ओ-नज़र पे हमारे अज़ाब से कुछ हैं

लहू रुलाते हैं और फिर भी याद आते हैं
मोहब्बतों के पुराने निसाब से कुछ हैं

उतरते रहते हैं आँखों के आइनों पे सदा
किताब-ए-ख़स्ता में गुम-गश्ता बाब से कुछ हैं

सिवाए तिश्नगी कुछ और दे सके न हमें
जो ज़ेर-ए-आब चमकते सराब से कुछ हैं

मुदाम उन को चमकना बग़ैर ख़ौफ़-ए-फ़ना
ये आसमान पे जो बे-हिसाब से कुछ हैं