हवा के दोश पे रक़्स-ए-सहाब जैसा था
तिरा वजूद हक़ीक़त में ख़्वाब जैसा था
दम-ए-विदाअ' समुंदर बिछा रहा था कोई
तमाम-शहर ही चश्म-ए-पुर-आब जैसा था
मिरी निगाह में रंगों की धूप छाँव सी थी
हुजूम-ए-गुल में वो क्या था गुलाब जैसा था
हमारी प्यास ने वो भी नज़ारा देख लिया
रवाँ-दवाँ कोई दरिया सराब जैसा था
झुकी निगाह वो कम कम सुख़न दम-ए-इक़रार
वो हर्फ़ हर्फ़ तिरा इंतिख़ाब जैसा था
मुझे तो सैर-ए-जहाँ सैर-ए-बाज़गश्त हुई
तिरा जहाँ दिल-ए-ख़ाना-ख़राब जैसा था
शिकस्ता ख़्वाबों के टुकड़ों को जोड़ते थे हम
वो दिन अजीब था रोज़-ए-हिसाब जैसा था
हमें बरतने में कुछ एहतियात लाज़िम थी
दिलों का हाल शिकस्ता किताब जैसा था
मैं 'शाज़' क्या कहूँ क्या रौशनी थी राहों में
वो आफ़्ताब न था आफ़्ताब जैसा था
ग़ज़ल
हवा के दोश पे रक़्स-ए-सहाब जैसा था
शाज़ तमकनत