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हवा-ए-शोख़ की आख़िर फ़ुसूँ कारी ये कैसी है | शाही शायरी
hawa-e-shoKH ki aaKHir fusun kari ye kaisi hai

ग़ज़ल

हवा-ए-शोख़ की आख़िर फ़ुसूँ कारी ये कैसी है

वली मदनी

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हवा-ए-शोख़ की आख़िर फ़ुसूँ कारी ये कैसी है
अज़िय्यत दे के टल जाती है दिलदारी ये कैसी है

बरसते हैं मुसलसल अपने सर आफ़ात के पत्थर
बता ऐ दिल बलाओं की ख़रीदारी ये कैसी है

उगी हैं धूप की फ़सलें कहीं साया नहीं मिलता
शजर-कारी का दावा था शजर-कारी ये कैसी है

खड़ी है अपने दामन को पसारे ग़ैर के आगे
मिरे मौला परेशाँ आज ख़ुद-दारी ये कैसी है

कहीं ख़ुशियों की कलियाँ हैं कहीं अश्कों के बूटे हैं
हयात-ओ-मौत के माबैन गुल-कारी ये कैसी है

दरीचों से शुआएँ झाँकती हैं मुस्कुराती हैं
ख़बर तो लो पस-ए-दीवार बेदारी ये कैसी है

लरज़ती है फ़क़त इक लफ़्ज़ की हल्की सी ठोकर से
'वली' दल के मकाँ की चार-दीवारी ये कैसी है