हवा-ए-शब से न बुझते हैं और न जलते हैं
किसी की याद के जुगनू धुआँ उगलते हैं
शब-ए-बहार में महताब के हसीं साए
उदास पा के हमें और भी मचलते हैं
असीर-ए-दाम-ए-जुनूँ हैं हमें रिहाई कहाँ
ये रंग ओ बू के क़फ़स अपने साथ चलते हैं
ये दिल वो कारगह-ए-मर्ग-ओ-ज़ीस्त है कि जहाँ
सितारे डूबते हैं, आफ़्ताब ढलते हैं
ख़ुद अपनी आग से शायद गुदाज़ हो जाएँ
पराई आग से कब संग-दिल पिघलते हैं

ग़ज़ल
हवा-ए-शब से न बुझते हैं और न जलते हैं
शकेब जलाली