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हवा-ए-इश्क़ में शामिल हवस की लू ही रही | शाही शायरी
hawa-e-ishq mein shamil hawas ki lu hi rahi

ग़ज़ल

हवा-ए-इश्क़ में शामिल हवस की लू ही रही

सिद्दीक़ अफ़ग़ानी

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हवा-ए-इश्क़ में शामिल हवस की लू ही रही
बढ़ा भी रब्त तो बे-रब्त गुफ़्तुगू ही रही

न आई हाथ में तितली-गुदाज़ ख़ुशबू की
गुल-ए-बदन की महक मेरे चार-सू ही रही

वो दश्त दश्त सी आँखें चमन चमन चेहरा
सराब-ए-ख़ौफ़ की इक लहर रू-ब-रू ही रही

तुलूअ' उफ़ुक़ पे है अब तक वही सितारा-ए-बाद
मैं भूल जाऊँ उसे दिल में आरज़ू ही रही

हज़ार बार लुटा हुस्न-ए-बर्ग-ओ-बार मगर
रग-ए-शजर में रवाँ मौज-ए-रंग-ओ-बू ही रही

हरी रुतों की हुई आसमान से बारिश
मगर ज़मीन-ए-तमन्ना लहू ही रही

सफ़र की धूप ने तन-मन जला दिया मेरा
मदार-ए-दश्त में साए की जुस्तुजू ही रही

हुआ न दूर मिरे दिल से ज़ंग-ए-महरूमी
तमाम रात रवाँ चश्म-ए-आब-जू ही रही

अबद अबद से मिरी ख़ुद से जंग जारी है
ये ख़ैर-ओ-शर की बला मुझ से दू-बदू ही रही

उबलता रहता है सीने में कर्ब का लावा
लिबास-ए-ख़ाक को भी हाजत-ए-रफ़ू ही रही

तवाफ़-ए-शहर-ए-निगाराँ मिरा ही जुर्म नहीं
ज़न-ए-हवा भी तो आवारा कू-ब-कू ही रही