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हवा-ए-हिज्र में जो कुछ था अब के ख़ाक हुआ | शाही शायरी
hawa-e-hijr mein jo kuchh tha ab ke KHak hua

ग़ज़ल

हवा-ए-हिज्र में जो कुछ था अब के ख़ाक हुआ

मोहसिन नक़वी

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हवा-ए-हिज्र में जो कुछ था अब के ख़ाक हुआ
कि पैरहन तो गया था बदन भी चाक हुआ

अब उस से तर्क-ए-तअल्लुक़ करूँ तो मर जाऊँ
बदन से रूह का इस दर्जा इश्तिराक हुआ

यही कि सब की कमानें हमीं पे टूटी हैं
चलो हिसाब-ए-सफ़-ए-दोस्ताँ तो पाक हुआ

वो बे-सबब यूँही रूठा है लम्हा-भर के लिए
ये सानेहा न सही फिर भी कर्ब-नाक हुआ

उसी के क़ुर्ब ने तक़्सीम कर दिया आख़िर
वो जिस का हिज्र मुझे वज्ह-ए-इंहिमाक हुआ

शदीद वार न दुश्मन दिलेर था 'मोहसिन'
मैं अपनी बे-ख़बरी से मगर हलाक हुआ