हवा-ए-फ़स्ल-ए-गुल के साथ बर्क़-ए-'शो'ला'-बार आई
नशेमन में लगी है आग गुलशन में बहार आई
गुलों पर ताज़गी आई न बाद-ए-इत्र-ए-बार आई
जहान-ए-रंग-ओ-बू में नाम को फ़स्ल-ए-बहार आई
खिला ग़ुंचा न दिल का गरचे गुलशन में बहार आई
हवा-ए-मौसम-ए-गुल भी न उस को साज़गार आई
गुलों पर ऐसी ग़फ़लत थी न चौंके सहन-ए-गुलशन में
जगाने के लिए फ़रियाद-ए-बुलबुल गो हज़ार आई
सबब उस के सिवा कुछ भी नहीं आँसू बहाने का
कि शबनम बे-सबाती-ए-जहाँ पुर-अश्क-बार आई
सता कर शाद होते हैं ये फ़ितरत है हसीनों की
जो रोने पर मिरे उन को हँसी बे-इख़्तियार आई
फ़ज़ा-ए-सहन-ए-गुलशन भी न थी ख़ाली कुदूरत से
नसीम-ए-सुब्ह भी आलूदा-ए-गर्द-ओ-ग़ुबार आई
नफ़स की आमद-ओ-शुद का भरोसा कुछ नहीं 'शो'ला'
पयाम-ए-मौत ले कर ख़ुद हयात-ए-मुस्तआर आई
ग़ज़ल
हवा-ए-फ़स्ल-ए-गुल के साथ बर्क़-ए-'शो'ला'-बार आई
शोला करारवी