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हवा चमन की भला हम को साज़गार कहाँ | शाही शायरी
hawa chaman ki bhala hum ko sazgar kahan

ग़ज़ल

हवा चमन की भला हम को साज़गार कहाँ

अर्श मलसियानी

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हवा चमन की भला हम को साज़गार कहाँ
बहार नाम को है असल में बहार कहाँ

जो तुम नहीं थे तो इक लुत्फ़-ए-इंतिज़ार तो था
तुम आ गए हो तो अब लुत्फ़-ए-इंतिज़ार कहाँ

चमन से दूर भी देखी है फ़स्ल-ए-गुल हम ने
मगर वो सिलसिला-ए-नग़्मा-ए-बहार कहाँ

नुमूद-ए-सुब्ह हुई और उजड़ गई महफ़िल
मय-ए-शबाना कहाँ अब वो मय-गुसार कहाँ

चमन ये शहर-ए-निगाराँ बना तो है लेकिन
मिरी बहार को छोड़ आई है बहार कहाँ

हुई हैं उन से उचटती सी कुछ मुलाक़ातें
मगर ये कैफ़ ब-अंदाज़ा-ए-ख़ुमार कहाँ

न सीना चाक है कोई न अब गरेबाँ चाक
गया न जाने वो सर्माया-ए-बहार कहाँ

ब-फ़ैज़-ए-अज़्मत-ए-इस्याँ मिली है ये तौक़ीर
वगर्ना दर-ख़ुर-ए-रहमत गुनाहगार कहाँ

न वो सोहबत-ए-माज़ी न उस की याद ऐ 'अर्श'
जो कारवाँ ही नहीं है तो फिर ग़ुबार कहाँ